नारी शशक्तिकरण के विषय में सुन सुन कर ,सरकार की तमाम नीतियों में इसका आलेख और इसके लिए धनराशि का आबंटन देख कर और फिर भी नारी की अंतरात्मा में वही पुराने सवाल देख कर को मन उलझन से भर जाता है. मुझे समझ नहीं आता की नारी का ही शशक्तिकरण क्यों हो। पुरुष तो नारी से भी ज्यादा अशक्त है कई मामलों में. ये सच्च है की सिर्फ दो जून भोजन , पानी,और सर छुपाने के एक छत के लिए नारी को बहुत कुछ नहीं सहना पड़ता है पर ये इसलिए है की कभी किसी नारी ने पुरुष की कमजोरी को उसके सामने लाने का साहस नहीं किया, उसे तो बस ये सिखाया गया की पुरुष ही परमेश्वर है और नारी को उसका सम्मान करना हे है पिता भाई पति या पुत्र के रूप में. अगर वह बोलती है तो वाचाल कह कर परिवार नकार देता है, और आश्चर्य की परिवार में माँ भी बेटी की न हो कर बेटे की दामाद की तरफ़दार हो जाती हो, मन में बेशक उसके खटके की में गलत का साथ दे रही हूँ पर एक अनजाने दर की बेबसी उसको सही बोलनी से रोकती है. पुरुष और नारी के स्वाभिमान ,सम्मान को नापने की इकाई बहुत भिन्न है , जो छोटी मोटी बातो में थोड़ा थोड़ा अपमान का घूँट पी कर नारी बहुत स्वाभाविक रूप से अपना काम करती रहती है, कर्त्तव्य निभाती रहःती है , वहीं पुरुष इस सम्मान में एक प्रतिशत कमी में बवाल मचा देता है और परिवार हो या समाज वह इस बवाल का आरोप स्त्री पर डाल देता है। कितनी विचित्र बात है। मैं समझती हूँ जब तक नारी अपने को परिवार और समाज से अलग अपना एक व्यक्तिगत आंकलन नहीं करना आएगा, अपनी शक्ति को पहचानना नहीं आएगा ,वह हमेशा परावलम्बी रहेगी। शिक्षा के साथ साथ ये मेमन चिंतन भी ज़रूरी है , की उसे क्या करना होगा की पुरुष की भांति वह भी निश्चिंत जीवन जी सके , उसे अपने कर्तव्यों को करते हुए अपने आत्मसम्मान की रक्षा का मार्ग खुद ही ढूंढना होगा। उसे पुरुष को ये समझाना होगा की उस से उसको सिर्फ परस्पर सम्मान चाहिए, प्रेम चाहिए , और सम्मान पहली मांग है उसके बिना कुछ नहीं चाहिए.