न बची जीने की चाहत, तो मौत का सामान ढूंढता है !
क्या हुआ है दिल को, कि कफ़न की दुकान ढूंढता है !

समझाता हूँ बहुत कि जी ले आज के युग में भी थोड़ा,
मगर वो है कि बस, अपने अतीत के निशान ढूंढता है !

मैं अब कहाँ से लाऊं वो निश्छल प्यार वो अटूट रिश्ते ,
बस वो है कि हर सख़्श में, सत्य और ईमान ढूंढता है !

दिखाई पड़ते हैं उसे दुनिया में न जाने कितने हीअपने,
मगर वो तो हर किसी में, अपने लिए सम्मान ढूंढता है !

मूर्ख है “मिश्र” न समझा आज के रिश्तों की हक़ीक़त,
अब रिश्तों से मुक्ति पाने को, आदमी इल्ज़ाम ढूंढता है !

Submitted By : शांती स्वरूप मिश्र

Hindi Poem by Jay Vora : 111646175

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