" कर्ण "
कुंतिपुत्र होते हुए भी, उसने राधा मां की ममता मानी थी
रक्तके खिलाफ जाकर, गलत मित्र की मित्रताही चुनी थी
एक साधारण कुल में इतना तेजस्वी बालक कैसे
यह पहेली बड़े अजीब मोड़ पर उसे सुलझी थी
पर रिश्तो की डोर कर्तव्य के बंधन से
बड़ी ही कस के उलझी थी
स्वयं इंद्र रूप बदल आए थे कवच मांगने बनकर याचक
देवलोक के वो महारथी स्वयं थे अर्जुन के रक्षक
सूर्यदेव की चेतावनी के बाद भी कर्ण ने दान दिया
कहा, इतना बड़ा इंद्र आज याचक बन मेरे दर आया
मृत्यु अटल है जानकार भी युद्ध के मैदान में उतरा
लड़ता रहा वो वीर और गिरता लहू का एक एक कतरा
एक क्षण आया जब कृष्ण भगवान युद्ध के नियम भूले
और उनके ही कहनेपर निशस्त्र कर्णपर अर्जुनके बाण चले
आखरी सांस खत्म होने तक उसने अपना धर्म निभाया
मृत्युयातनामेंभी उसने सोनेका दात निकालकर दान दिया
सूतपुत्र कहकर जिंदगीभर दुनियाने जिसका उपहास बनाया
लेकिन उसी सूतपुत्र ने आखिर "दानवीर कर्ण" नाम पाया