"वाँसवाड़ी की भगजोगनियाँ"
शाम से सुबह तक घूमता रहा,
अपने कुछ खोये वस्तुओं की तलाश में।
पर शहरों की कालिख पुती सड़कों पर,
पक्के बिल्डिंगों और स्ट्रीट लैम्प पोस्टों के बीच
चक्कर काट काट कर थक गया-
नहीं मिला मेरा बचपन का खोया चाँद,
टिमटिमाते तारे
और वाँसवाड़ी की भगजोगनियाँ।
मन विचलित है सुबह से,
गौरैयों को देखे वर्षों बीत गये ,
खपड़ैल फूस के छप्पर कहाँ,
जहाँ खोते हों इन घरेलू पक्षियों के।
चुनमुनियों,मैनों को कोई डर नहीं थी,
बागों -फुलवाड़ियों में संग संग खेलती थीं।
कठफोड़वा को देर तक निहारता,
वे पेड़ों के तनों को किस कदर
अपने सख्त चोंच से खोदते रहते थे।
स्मृति में है खेतों में और गढों किनारे बैठे बगुलों के झुंड ,
जो बाढ़-वर्षा के बाद सूखते खेतों में छोटी मछलियों और कीटों
पर किस तरह निशाने लगाते रहते।
गर्मियों में जब स्कूल मार्निंग होते,
दोपहरी में घर के बड़े खाकर सोते ,
तब चुपचाप निकल जाती थी अपनी टोली
डोलपत्ता खेलने आम की गाछी में।
कोई झूला झूलता टहनियों से रस्सी बाँध।
चला जाऊँगा अपनी उन वादियों में जहाँ टंगा है
मेरा बचपन,
मेरी यादें।
एक दिन अपनी यादें बता रहा था
गाँव से आये एक भाई को,
मेरी उदासी देख बोला -मत जा गांव वहाँ भी खो गया है चाँद।
कट गये हैं बागीचे,
उजर गये हैं बाग।
झोपरियों वाले फूस घर।