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महेक मिट्टीकी- कैसे भूलूँ!! महेक मेरे शहर की, कैसे भूली जाएगी? दूर दरियापार भी, साँसोंमें है समाई सी।
વાહ..
Vah vah
महेक मिट्टीकी- कैसे भूलूँ!! महेक मेरे शहर की, कैसे भूली जाएगी? दूर दरियापार भी, साँसोंमें है समाई सी। महेक भीनी भीनी सी, मेरे बचपनके बरसातों की। महसूस होती है आजभी, जब याद आती बचपनकी। महेक मेरे घरके आँगनमे, लगे वो तुलसी पौधेकी। भर लेती हूँ साँसोंमें, जब याद आती तुलसीकी। महेक माँ के हाथों की, बनी हुई हर रोटीकी। पानी लाती है मुँहमें, जब याद आती उस रोटीकी। अब कहाँ वो महेक औऱ, कहाँ रहा वो बचपन। अब ना है वो तुल्सीपौधा, और ना रही वो बरसात। चल जो पड़ी हूँ थाम के, हाथ मेरे साथी का। अनजाने से देश को, बनाने जाना-पहचाना सा। आँख भर आती है आजभी, जब याद आती मेरे शहरकी। बस साँस ले कर भर लेती हूँ, उस बचपनकी मीठी यादोँ को। ✍️- ख्याति सोनी "लाडू"
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