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*परंपरा*
बुद्ध का रंग अलग, ढंग अलग।
कृष्ण का रंग अलग, ढंग अलग।
क्राइस्ट का रंग अलग, ढंग अलग।
ये सब फूल अलग-अलग है। कोई कमल, कोई गुलाब तो कोई चमेली।
लेकिन जो खिलने की स्थिति है वह एक सी है। कोई भी फूल खिले, खिलावट एक जैसी है।खिलने का आनंद एक जैसा है।
मीरा नाची, और बुद्ध वृक्ष के नीचे बैठे रहे। यह उनके खिलने का ढंग है।
कृष्ण ने बांसुरी बजाई, और महावीर नग्न हुए।
लेकिन कृष्ण की बांसुरी में वही स्वर है जो महावीर की नग्न निर्दोषता में।
और बुद्ध के पैरों में घुंघरू नहीं, पर जो सुन सकता है उसे मीरा के घुंघरू की आवाज सुनाई पड़ेगी।
जगत में अलग-अलग ढंग के फूल है, लेकिन खिलावट एक सी है। कोई फूल परंपरा वादी नहीं होता। तुम जैसा आदमी पहले कभी नहीं हुआ, परंपरा कैसे बनेगी।
असली धार्मिक दृष्टि सदा व्यक्तिवादी होती है, परंपरावादी नहीं। परंपरा राजनीति है, धर्म नहीं ।
- ओशो