हम जो भी पढ़ते हैं वो किसी लेखक की क़लम से निकल कर सीधा हम तक नहीं आता। बीच में विशेषज्ञता और तकनीक के कई स्तर होते हैं।
लेखक, संपादक, समीक्षक, प्रकाशक, कलाकार, मुद्रक और विक्रेता आदि सब मिलकर उसे प्रस्तुति के योग्य बनाते हैं।
जब हम उसे पढ़ते हैं तो हमारे मस्तिष्क (मानस) की लोचशीलता उसे ग्रहण करती है। यदि हमारी ग्रहण शीलता "इलास्टिसिटी" युक्त है तो उससे "विवेक" ग्रहण करने की संभावना भी उसी अनुपात में बढ़ जाती है, किन्तु यदि हमारी ग्रहण क्षमता संकीर्णता युक्त अथवा दकियानूसी है तो हमारे जड़ बने रहने की आशंका बनी रहती है।
इसे एक छोटे से उदाहरण से समझिए -
हमारे पास दो हाथ हैं। हम दिनभर में इनसे कई काम लेते हैं। हम जिस समय जो भी काम इनसे लें, वो दत्तचित्त होकर लें, यही हमारी दक्षता या एकाग्रता है।
खाने की मेज़ पर हम इन हाथों में निवाला लेकर मुंह में रखते हैं और स्वाद से खाते हैं। उस समय हम भुला देते हैं कि सुबह शौचघर में यही हाथ हमारी विष्ठा को साफ करने के काम में तल्लीन थे। हमने इनकी साफ़ - सफाई से ही इन्हें फ़िर किसी भी कार्य के लायक़ बना लिया। इन्हीं हाथों ने किसी के सिर पर लग कर उसे आशीर्वाद दिया है। यही हाथ दिन के किसी क्षण में किसी का चरण स्पर्श कर आए हैं। फ़िर भी जीवन पर्यन्त इनका प्रयोग करना हमारा अधिकार भी है, कर्तव्य भी।
हमारी यही समझ वस्तुतः ज्ञान या विवेक है।
प्रायः उपन्यासों में ऐसा ही होता है कि लगभग हर तरह के प्रसंग आते हैं।
मेरे उपन्यास "अकाब" का ही उदाहरण लीजिए।
इसमें एक देश से दूसरे देश के बीच उम्मीद और सपने लेकर किया जाने वाला पलायन है।
इसमें दो लोगों के बीच प्रणय संबंध दरकने पर संतान के भीतर घर करती असुरक्षा की भावना है।
इसमें वैश्विक आतंकवाद की अमानवीय गुर्राहट है।
इसमें महानगरों में अलग- अलग क्षेत्रों से आकर रहने वालों का सामूहिक संस्कृति -विहीन घालमेल है।
इसमें अलग -अलग देशों के स्त्री पुरुष के बीच केवल दैहिक आकर्षण से उपजा प्रणय है।
इसमें उजड़े घरों से छिटके युवाओं के बीच संस्कार रहित बदन पिपासा है।
इसमें ग्लैमर की दुनिया के सफल लोगों की असीमित भूख से उपजी धन- लिप्सा का कुत्सित खेल है।
इसमें भाग्य के आधार पर व्यक्ति की प्रतिष्ठा बनने - बिगड़ने का दर्दनाक चित्रण है।
ऐसी कृति में अगर किसी एक समाज के ही नैतिक मूल्यों की तलाश की जाएगी तो इसके लेखन - पठन का मक़सद ही तिरोहित हो जाएगा।
मृदुला गर्ग के "चितकोबरा", राही मासूम रज़ा के "आधा गांव" या प्रबोध कुमार गोविल के "देहाश्रम का मनजोगी" को यदि आप शरीर के दबे- छिपे अंगों के चंद नाम, समाज में जड़ तक समाई चंद गालियों अथवा दो समलिंगी बदनों के नैसर्गिक घर्षण के आधार पर ही समूचा आंक देंगे तो ये ऐसा ही होगा कि आपने सुबह शौचघर से निकल कर अपने हाथ ये कह कर काट फेंके, कि ये तो गंदे हो गए।

Hindi Motivational by Prabodh Kumar Govil : 111594215
Priyan Sri 4 years ago

आपने लेखन से लेकर पाठक तक की प्रक्रिया और उसमें निहित गूढ़ता कितनी सरलता से बयां किया है, उसके लिए आभार एवं आपकी पुस्तक के लिए शुभकामनाएं 💐 💐

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