कुछ दोहे
पिंडदान करते रहे, गया त्रिवेणी तीर।
स्वर्ग लोक से हंँस रहे, क्या समझेंगे पीर।।
जीवित रहते कब दिया, मात-पिता सम्मान।
परलोकी जब हो गए, करते फिरते दान।
जब तक जिन्दा थे कभी, रखा न उनको साथ ।
जब अर्थी पर चल दिए , पीट रहे थे माथ।।
जल तर्पण सब कर रहे, नदी जलाशय भोर।
दान क्षमा का तब मिले, मन में छिपे न चोर।।
पितृपक्ष में बन रही, उनको अब कागोर ।
रूप बदल कागा कहाँ, अब आते हैं भोर।।
शहरी संस्कृति ने डसा,चलो गाँव की ओर।
प्रेम प्यार सम्मान के, छूट रहे नित छोर ।।
मनोज कुमार शुक्ल " मनोज "
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