आजकल न जाने कुछ हो सा गया हैं
क़लम हैं कि चलती ही नहीं
शायद दिमाग़ कुछ ज़्यादा ही उलझनो में उलझा हैं
शायद दिल किसी ऑर ही फिरात में घूम रहा हैं
जो क़लम एक शब्द पर अनगिनत बातें लिखती थी
वो अब हाथ में लेते ही किसी सोच में पड़ जाती हैं
न जाने क्या !
सोचती हूँ शायद अब पहले जैसी कला की तलब नहीं होगी
इस लिए क़लम साथ छोड़ रही हैं
पर मेरी ज़िंदगी
मेरा प्यार
मेरा सुख
मेरा दुःख
मेरी ग़लतियाँ
मेरी नाराज़गीयाँ
सब तो उससे बयाँ करती आयी हूँ
और अब जब इस दिल-ओ-दिमाग़ में कुछ बहुत गहरा चल रहा हैं
क़लम ही साथ छोड़े जा रही हैं......
शायद कही टूट सी रही हूँ.....
शायद थोड़ी ख़ुद से दूर सी हो रही हूँ....
बहुत सारा जो प्यार ख़ुद के लिए था
उससे अब बेवफ़ाई करने शायद .....
मैं जा रही हूँ.....
शायद अपनी सी लगती क़लम से
रिश्ते में थोड़ी कड़वाहट आ गई हैं.....
और वो अब नाराज़ बेठी मुझसे
ख़ुद की थोड़ी अहमियत बता रही हैं.....
हाँ, मेरी क़लम ,
तेरे बिन सच्ची मैं कुछ भी नहीं
और तेरे बिन सच्ची रोज़ बड़ी घुटन सी होती हैं अब .....
मान जाना अब
वरना शायद तू माने तब तक में बिखर गई होगी.....
~तेरे बिना कुछ नहीं ऐसी तेरी प्यारी पर्ल