जहा से हम चले थे वो जमाने मिल गये होते
हमे फिर से वही मंझर सुहाने मिल गये होते

कोई चलना शीखा देता मुझे उंगली पकड के फिर
मुझे घर लोट जाने के बहाने मिल गये होते

ये शिशो के हवा महलो से आगे दूर जा बसते
हमारे गांव के बंझड-बिराने मिल गये होते

मुझे वो धूल मिट्टी से ये मेरे पाप धोने है
अगर फिर से वो बचपन के खजाने मिल गये होते

मै छुपना चाहता हुं फिर लुपा छीपी के खेलो मे
यहां खोये मेरे साथी सयाने मिल गये होते

परशुराम चौहाण

Hindi Poem by અધિવક્તા.જીતેન્દ્ર જોષી Adv. Jitendra Joshi : 111576705

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