उफ़...
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वक्त के हर पन्नो पर खुदको ढूंढते रहे,
जैसे   रोज़   इक पहेलीमे  डूबते  रहे.
सोचा था जी लूंगा ईस प्यार-मुहोब्बतसे,
मगर  अपनो से रोज़ हम बिछड़ते रहे।
                      
न  तसव्वुर  न  सब्र की  सीमा है,
ए दिले नादां  फिर भी मगर जीना है।
शाकी से  क्यूं  तुम  रुशवा होते हो,
ग़मे  जश्न हो; तो  बस  पीना  है ।
                
शिकायत क्या करें ज़माने से,
खुद ही चले आए थे मैखानेमे।
सोचा; ख़ुदको खुदी से मिटा लूं,
हम डूब गए मगर इक पैमाने में।

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રાજેન્દ્રકુમાર એન.વાઘેલા
ભરૂચ.
                  

Gujarati Shayri by રાજેન્દ્રકુમાર એન. વાઘેલા : 111574078

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