उफ़...
=================================
वक्त के हर पन्नो पर खुदको ढूंढते रहे,
जैसे रोज़ इक पहेलीमे डूबते रहे.
सोचा था जी लूंगा ईस प्यार-मुहोब्बतसे,
मगर अपनो से रोज़ हम बिछड़ते रहे।
न तसव्वुर न सब्र की सीमा है,
ए दिले नादां फिर भी मगर जीना है।
शाकी से क्यूं तुम रुशवा होते हो,
ग़मे जश्न हो; तो बस पीना है ।
शिकायत क्या करें ज़माने से,
खुद ही चले आए थे मैखानेमे।
सोचा; ख़ुदको खुदी से मिटा लूं,
हम डूब गए मगर इक पैमाने में।
###
રાજેન્દ્રકુમાર એન.વાઘેલા
ભરૂચ.