#भद्दा

वों स्त्री ही है जो घर तुम्हारा बनाने को अपना घर छोड देती है अपने रिश्तों को त्याग कर नयें रिश्तों की नींव वों भरती है।

एक स्त्री ही है जो परिवार को सँभालती है सहेजती है तुम्हारे मकान को घर बनाने के लिए हर वों काम बड़े चाव से करती है जो उसने पहले कभी किये ही नही ।

वों स्त्री ही हैजों कभी अपने नखरों से सारा घर सिर पर उठाती थी अब वों कब कैसें समझदारी की मूरत बन जाती है नाज़ तुम्हारें उठाने को सरपट भागती रहती है।

वो स्त्री ही है जो कभी एक गलती पर सबके कान काटती थी अब बिना गलती के सिर झुकायें हथियार डाल देती है।

यें आत्मसमर्पण उसकी कमजोरी नही यें तो उसका प्यार है जो वों हर पल तुम पर न्यौछावर करती है।

क्या हुआ जो कभी सब्जी अच्छी बनी नही क्या हुआ वो गर ज्यादा सोते रह गई क्या हुआ जो मन बहलाने को घूमनें वों भी चली गई।

हद तों तब होती है जब यें अपने मुँह महानता का बखान करते है खुद को सर्वगुणसंपन्न बताकर संस्कारहीन हमें कर देते है

समाज का ये भद्दा रुप गंदा है कड़वा है पर सच्चा है
-Vaishnav

Hindi Poem by Vaishnav : 111570786

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