मैं बेवकूफ़ सी बेपरवाह सी यूँही रहती हूं,
अपनी ही धुन में...
क्या फर्क पड़ता कुछ बाक़ी रह भी गया तो..
एक ना एक दिन तो सबकुछ रह ही जाना है..
क़यामत के दिन तो हम होंगे ही सबसे आगे,
और ज़माने ने हमारे पीछे ही आना है..
मैं इन किताबों का इतिहास नहीं बनना चाहती..
या मेरे बाद कोई मुझे याद रक्खे..
जिन्होंने खुद एक ना एक दिन मिट ही जाना है..
मैं वो पहली बारिश की सोंधी सी खुसबू होना चाहती हूं..
जिसे महसूस कर कोई मिट्टी खाने को तरस जाए..
मैं वो चंदन हो जाना चाहती हूं..
जिसकी महक हमेशा के लिए ज़हन में बस जाए..
मैं वो मिट्टी हो जाना चाहती हूं,
जहाँ मेरे महादेव बसते हों...

Hindi Poem by Sarita Sharma : 111568430
Sarita Sharma 4 years ago

धन्यवाद..

Brijmohan Rana 4 years ago

बेहतरीन सृजन ,शानदार रचना ।

Sarita Sharma 4 years ago

धन्यवाद..

shekhar kharadi Idriya 4 years ago

अत्यंत सुंदर

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