#शिक्षक_दिवस
यदि यह कहा जाए आज की शिक्षा पद्धति और शिक्षक; दोनों ही अपने वांछित उद्देश्य के प्रति पूर्णतयः दिग्भर्मित हो चुके हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
वस्तुतः यदि भारतीय संदर्भ में शिक्षा पद्धति का उद्देश्य देखा जाए तो प्राचीन काल से ही शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य संस्कार जनित शिक्षा रहा है। हमारी सभ्यता में प्रारंभ से ही गुरुकुल पद्धति के तहत एक ऐसी शिक्षा का प्रावधान रहा है, जिसमें छात्रों के सर्वांगीण विकास का उत्तरदायित्व आचार्य यानी शिक्षक पर ही रहा है।
'आचार्य देवो भव’ के मूल मंत्र में स्थापित ये प्रणाली गुरु-शिष्य के मध्य न केवल एक स्वस्थ्य संबंध कायम करती थी, वरन आश्रम (शिक्षा संस्थान कह सकते हैं) के परिवेश की सात्विकता का लाभ भी गुरु-शिष्य दोनों को ही होता था, जो एक स्वस्थ्य समाज का मार्ग प्रशस्त करने में भी सहायक था। अब यदि इसके समानांतर आज की शिक्षा पद्दति का आंकलन किया जाए तो सर्वप्रथम; सभ्यता में आया बड़ा बदलाव ही शिक्षा के मूल ढांचे में परिवर्तन लाने के लिए पर्याप्त था।
दरअसल संसार में चहुँ ओर होते विकास के मद्देनजर शिक्षा पद्दति के तरीकों और साधनों में बदलाव का निर्णय गलत नहीं था, लेकिन इस परिवर्तन की बयार में जो भारतीय शिक्षा पद्दति पूरी तरह से पाश्चात्य विचार-आधारित हो गई, यही गलत हुआ। आज हमारी शिक्षा पद्दति पूरी तरह से पाश्चत्य संस्कृति के अनुरूप है। जैसे-जैसे शिक्षा पद्धति पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव पड़ता गया, वैसे-वैसे शिक्षा और शिक्षक दोनों ही परिवर्तित होते गए। जहां एक और अब शिक्षा का मूल उद्देश्य केवल आजीविका और प्रोफेशन तक सीमित हो गया है, वहीं शिक्षक का लक्ष्य भी केवल अपनी जीविका और आर्थिक पक्ष तक केंद्रित रह गया है। परिणामतः आज के शिक्षक-छात्र के बीच गुरु-शिष्य वाला संबंध लगभग समाप्त ही हो गया है। जहां आज का शिक्षक केवल शिक्षा देने की एक यांत्रिक मशीन बन गया है, वहीं छात्र केवल 'एजुकेशनल गैजेट' (शैक्षिक यंत्र) की मातृभारती बनकर रह गया है।
आज की शिक्षा पद्दति भले ही नई पीढ़ी को एक उज्ज्वल भविष्य के साथ एक विस्तृत आकाश देती है लेकिन शैक्षिक तरीकों के चलते आज की पीढ़ी अवसाद ग्रस्त और मानसिक रूप से रुग्ण होने के साथ अपनी जमीन और धर्म से भी विमुख होती जा रही है। इसी संदर्भ में यदि गौर किया जाए तो कमोबेश कई धर्मों में आज भी शिक्षा के साथ धर्म-शिक्षा व्यवस्था का चलन है। भले ही एक नज़र में यह पूर्णतयः तर्क संगत नहीं लगता लेकिन कुछ संस्कार से जुड़े बिंदुओं पर इसके महत्व को नकाराना सहज नहीं हैं। जरूरत है कि आज शिक्षक दिवस जैसे विशेष दिन पर इस बारे में अवश्य ही विचार किया जाए। वस्तुतः जरूरत है वर्तमान में; शिक्षा संस्थानों में शिक्षा के साथ किसी दिन विशेष आदि पर या अतिरिक्त समय में ऐसे कार्यक्रमों के आयोजन की, जहां भारतीय संस्कृति, सभ्यता से जुड़ा मार्गदर्शन उपलब्ध करवाया जाए जो न केवल गुरु-शिष्य दोनों के लिए शिक्षा पद्दति के वास्तविक उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक हो, बल्कि उनके आपसी संबंधों में भी मधुरता ला सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
// वीर //