आत्मदर्शन..!!
आत्मा ना कभी वृद्ध होती है और ना कभी मर सकती है, अतः इसे अजर और अमर कहा जाता है, उसमे अपरिमित ज्ञान,अपरिमित शक्ति तथा अपरिमित आनन्द विद्ममान है, आत्मा ज्ञान का अक्षय भण्डार है, ज्ञान तथा शक्ति के संग आनन्द भी विद्ममान रहता है।।
वास्तव में ज्ञानस्वरुप होने पर भी आत्मा अविद्या के प्रभाव से अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने में असमर्थ रहती है, इसी कारण वह स्वयं को अल्पज्ञ समझती है, इसी अल्पज्ञता के कारण वह स्वयं में शक्ति का अभाव मानती है और ज्ञान तथा शक्ति की कमी के कारण वह आनन्द का अनुभव ना करके दुःख का अनुभव करती है।।
और ये तो सबको पता है कि संसार में दुःख का मूल कारण अज्ञानता ही होता है, पूर्ण ज्ञान तथा शक्ति के अभाव में आत्मा केवल यही अनुभव करती है कि कोई ऐसी वस्तु है, जिसे वो अभी तक प्राप्त नहीं कर पाई है, लेकिन वह क्या है ?यह वह नहीं जान पाती ,वह उस खोई हुई वस्तु को जानने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहती है, आत्मा उसको खोजने के लिए उचित मार्ग का ज्ञान ना होने के कारण कभी किसी ओर तो कभी किसी ओर दौड़ती रहती है, परन्तु वास्तविक वस्तु क़े प्राप्त ना कर सकने के कारण हमेशा असंतुष्ट रहती है, क्योंकि उसे किसी विषय में अपने स्वरूप की प्राप्ति नही होती,इस प्रकार जब आत्मा को अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं होता तो वह स्वयं को अपूर्ण समझती रहती है और सदैव ही आनन्द को खोजने का प्रयास करती रहती है।।
अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने के लिए चित्त की चंचलता को दूर करके उसे एकाग्र रखना परमावश्यक है, अतः चित्त की एकाग्रता को आत्मदर्शन का प्रधान साधन माना जाता है, चित्त की एकाग्रता से ही आत्मदर्शन होता है और यही मनुष्य का सबसे बड़ा पुरूषार्थ है।।
"मैत्री करूणामुदितोपेक्षाणाम् भावना तस्य चित्त प्रसादम् ॥"
सरोज वर्मा__