साहित्य और समाज...!!
(सहितस्य भावः साहित्यः)--'साहित्य' शब्द 'सहित' से बना है(स+हित=हितसहित)
(समाज)--एक ऐसा मानव समुदाय ,जो किसी निश्चित भू-भाग पर रहता हो और जो परम्पराओं, धर्म एवं संस्कृति से आपस में जुड़ा हो तथा भाषाओं का प्रयोग करता हो समाज कहलाता है।।
साहित्य और समाज का पारस्परिक समम्बन्ध है, क्योंकि साहित्य ही समाज का दर्पण होता है,समाज और साहित्य परस्पर घनिष्ठ रूप से आबद्ध हैं, साहित्य का जन्म समाज से ही होता है, साहित्यकार किसी समाज विशेष का ही घटक होता है, वह अपने समाज की परम्पराओं ,इतिहास, धर्म एवं संस्कृति आदि से ही प्रेरित होकर कोई रचना रचता है और उसी रचना में उसके समाज का भी चित्रण होता है।।
इस प्रकार साहित्यकार अपनी रचना की सामग्री किसी समाज विशेष से ही चुनता है तथा समाज में घटित घटनाओं का लेखा जोखा प्रस्तुत करता है, इस प्रकार किसी भी साहित्य को जब भी पढ़ा जाता है तो मानसपटल पर एक चित्र अंकित हो जाता है।।
साहित्य समाज से ही जन्म लेता है क्योंकि साहित्यकार समाज विशेष का ही अंग होता है, इस प्रकार इतिहास में ना जाने कितने साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं से ना जाने व्यापक सामाजिक क्रान्ति द्वारा अनिष्टकर रूढ़ियों ,सड़ी गली भ्रष्ट परम्पराओं एवं ब्यवस्थाओं तथा समाज की जड़ को खोखला बनाने मूढ़तापूर्ण अन्धविश्वासों का उन्मूलन कराकर स्वस्थ परम्पराओं की नींव डलवाई,,इस प्रकार सम्पूर्ण मानवता साहित्यकारों के अनन्त उपकार से दबी है, जिसका ऋण समाज कभी नहीं चुका सकता।।
यही कारण है कि महान साहित्यकार किसी विशेष देश,जाति,धर्म एवं भाषाशैली समुदाय में जन्म लेकर भी सारे विश्व का प्रिय बन जाता है,किन्तु साहित्यकार की महत्वता इसमे है कि वह अपने युग की उपज पर बँधकर नहीं रह पाता बल्कि अपनी रचनाओं से समाज को नई ऊर्जा एवं प्रेरणा देकर स्पन्दित करता रहता है।।
क्योंकि संसार का सारा ज्ञान विज्ञान मानवता के शरीर का पोषण करता है, एकमात्र साहित्य ही समाज की आत्मा का पोषक है।।
जल उठा स्नेह दीपक-सा
नवनीत हृदय था मेरा,
अब शेष धूमरेखा से
चित्रित कर रहा अँधेरा ।
सरोज वर्मा___