कितनी बार,
भुवनमोहिनी मुस्कान के साथ,
कमलनयनों में
असंख्य समुद्रों की गहराई भरकर,
पूछा था तुमने,
कौन हो "तुम"?

शून्य में टकराकर,
तिरोहित हो जाता
ये प्रश्न, हर बार...
कौन हूँ "मैं"?

कई युगों में ढूंढते,
अब पाया
जब कभी,
सम्पूर्ण प्रेम
सहज साख्यभाव
सम्पूर्ण भक्ति
एक साथ तुम में घुल जाती है,
तब मैं बनती हूँ।

तुम्हारे अनन्त विस्तार का,
एक नन्हा सा कण।।

#कृष्ण

Hindi Poem by Meenakshi Dikshit : 111549327

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