धर्म और कर्म
एक दिन धर्म और कर्म में संवाद होने लगा कि उनमें से कौन ज्यादा महत्वपूर्ण है। वे दोनो एक संत के पास पहुँचे और उनसे इस विषय पर मार्गदर्शन देने का अनुरोध करने लगे। संत जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि तुम दोनो एक दूसरे के पर्याय हो और एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नही है। यदि धर्म नही होगा तो कर्म सही दिशा में नही होगा वह दिग्भ्रमित हो जायेगा। यदि कर्म नही होगा तो धर्म की प्रधानता समाप्त हो जायेगी क्योंकि कोई भी कार्य धर्मपूर्वक होकर सही दिशा में ही हो इसका निर्धारण करना असंभव हो जायेगा।
इसलिये कहा जाता हैं कि धर्मपूर्वक कर्म करने से सृजन सही दिशा में होता है जिसका लाभ व्यक्ति, समाज और सबको प्राप्त होता है। अब तुम दोनो स्वयं निर्णय लो कि एक के बिना दूसरे का क्या अस्तित्व रहेगा। इसलिये कहा जाता है कि कलयुग में कर्म आगे और धर्म उसके पीछे और सतयुग में धर्म आगे और कर्म उसके पीछे रहता है। उन दोनो की स्थिति उस रेलगाडी के समान है जिसमें एक इंजिन और एक गार्ड रहता है और दोनो की सहमति के बिना रेलगाडी प्रस्थान नही कर सकती। उसी प्रकार मानव जीवन धर्मपूर्वक कर्म के बिना अपूर्ण है। संत जी की बात उनकी समझ में आ गयी और उनके मन से अभिमान समाप्त हो गया तथा वे पहले की तरह एक दूसरे के प्रति समर्पित हो गये।