मैं स्त्री हूँ..
युगों-युगों से निर्वासित..विखंडित
स्वयं को सिद्ध करने का प्रयत्न करती
कभी चरित्र..कभी शक्ति...कभी मातृत्व
कभी धैर्य ..तो कभी धरती सी सहनशीलता
जीवन के विभिन्न आयामों में खुद को बिठाती हुई..
कभी अहिल्या सी शिला बन प्रतीक्षा
करती हूँ भगवान राम की
कभी द्रौपदी सी निर्वस्त्र होती हूँ
बुद्धिजीवियों की सभा में
शकुंतला सी स्वयं की पहचान का प्रमाण
देती खड़ी हूँ किसी दुष्यंत के समक्ष
कभी बुद्धत्व के शिखर की नींव का
पत्थर बन गयी यशोधरा सी
मीरा बन कर विषपान का सौभाग्य भी
मेरे ही हिस्से में है
किसी हरिश्चंद्र के सत्य-रक्षण के लिए
तारा बन मातृत्व की बलि देती
राधा बन रुक्मिणी का सौभाग्य जगाती
सीता सी सतीत्व की परीक्षा देती
लांछित... अश्रुपूरित...
मैं स्त्री हूँ....।

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