My Touching Poem...!!!!
जब ख़ुद को अर्पण दर्पण को कर
देखतीं हूँ तो बस यही सोचती हूँ मैं
अक्सर यहाँ देख कर ख़ुद को हैरां
मुझे हैरान कोई और भी कैसे ना हो
अक्सर सजती सँवरती तो हूँ जिस्म
से पर रुँह से भी तो कभी तकती हूँ में
देख ख़ुद को फिर ख़ुद ही ख़ुद सोचती
भी हूँ में..? क्या सच में सही करती हूँ में
स्त्री-चरित्र से बढ़ कर भी क्या कोई
दौलत है..??ख़ुद से यही पुछती हूँ में
पाश्चात्य-संस्कृति की आँधी ओ में
बिखरा पड़ा यह यौवन-घन,फ़ैशन की
शमशीर से परास्त दिशाहीन राहों में
भटकते कदमों को सँभाल पाती हूँ में
मान-मर्यादा-ख़ानदानी परम्पराओं
कि बलि चढ़ा कर बाहरी दिखावों में
ब्रेक-अपकी नाकाम ठोकरोंमें उलझता
गिरता पड़ता किरदार निभा पाती हूँ में
प्रभुजी की सबसे हसीन रचना तो हूँ
पर क्या ख़ुद को हसीन रख पाती हूँ में
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