वास्तविकता कल्पना से होती है विचित्र

कल्पना आभासी, अस्पष्ट व धुंधली होती है जिसकी अभौतिक स्पष्टता स्वयं कल्पना करने वाला ही जान सकता है। वास्तविकता भौतिक रूप से स्पष्ट होती है जिसमे तथ्यों, सूचनाओं, चित्रों, आदि का प्रकट रूप में समावेश होता है।

कल्पना स्थिर नही रहती वह लचीली प्रवर्ती की होती है जो मन के विचलन और विभिन्न आयामो में विचरण करते हुए चिंतन पर निर्भर करती है। और वास्तविकता प्रकट रूप में होती है जो स्थिर रहती है।

जबतक वास्तविकता से सामना न हो तब तक वह मन मे कल्पना रूप में बनी रहती है और जब सामना हो जाता है तब प्रथम दृष्टि में सामने जो प्रकट रूप में वास्तविकता होती है वह हमेशा के लिए मानस पटल पर वास्तविकता के संबंध में बनी कल्पना को ध्वस्त करके स्थाई रूप से अंकित हो जाती है।

वास्तविकता विचित्र इसलिए है क्योंकि वह हमारे कल्पना के बिल्कुल विपरीत होती है । कल्पनाओं में जिन चित्रों को हम बनाते हैं वास्तविकता से सामना होते ही समस्त चित्र अचानक ग़ायब हो जाते हैं और उसके स्थान पर स्पष्ठ वास्तविक चित्रों की छाप बन जाती है।

कोई भी कल्पना को वास्तविकता में ढालने, बदलने का प्रयास कर सकता है पर वास्तविकता को कल्पना में नही बदला जा सकता है। इसलिए वास्तविकता कल्पना से विचित्र होती है ।

- आलोक शर्मा

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