संकल्प
जबलपुर शहर से लगी हुई पहाडियों पर एक पुजारी जी रहते थे। एक दिन उन्हें विचार आया कि पहाडी से गिरे हुये पत्थरों को धार्मिक स्थल का रूप दे दिया जाए। इसे कार्यरूप में परिणित करने के लिये उन्होने एक पत्थर को तराश कर मूर्ति का रूप दे दिया और आसपास के गांवों में मूर्ति के स्वयं प्रकट होने का प्रचार प्रसार करवा दिया।
इससे ग्रामीण श्रद्धालुजन वहाँ पर दर्शन करने आने लगे। इस प्रकार बातों बातों में ही इसकी चर्चा शहर भर में होने लगी कि एक धार्मिक स्थान का उद्गम हुआ हैं। इस प्रकार मंदिर में दर्षन के लिये लोगों की भारी भीड़ आने लगी। वे वहाँ पर मन्नतें माँगने लगे। अब श्रद्धालुजनो द्वारा चढ़ाई गई धनराशि से पुजारी जी की तिजोरी भरने लगी और उनके कठिनाईयों के दिन समाप्त हो गये। मंदिर में लगने वाली भीड़ से आकर्षित होकर नेतागण भी वहाँ पहुँचने लगे और क्षेत्र के विकास का सपना दिखाकर अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का प्रयास करने लगे।
कुछ वर्षों बाद पुजारी जी अचानक बीमार पड़ गये। जाँच के उपरांत पता चला कि वे कैंसर जैसे घातक रोग की अंतिम अवस्था में है यह जानकर वे फूट फूट कर रोने और भगवान को उलाहना देने लगे कि हे प्रभु मुझे इतना कठोर दंड क्यों दिया जा रहा है ? मैंने तो जीवनभर आपकी सेवा की है।
उनका जीवन बड़ी पीड़ादायक स्थिति में बीत रहा था। एक रात अचानक ही उन्होनें स्वप्न में देखा की प्रभु उनसे कह रहे हैं कि तुम मुझे किस बात की उलाहना दे रहे हो ? याद करो एक बालक भूखा प्यासा मंदिर की शरण में आया था अपने उदरपूर्ति के लिये विनम्रतापूर्वक दो रोटी माँग रहा था परंतु तुमने उसकी एक ना सुनी और उसे दुत्कार कर भगा दिया। एक दिन एक वृद्ध बरसते हुये पानी में मंदिर में आश्रय पाने के लिये आया था। उसे मंदिर बंद होने का कारण बताते हुये तुमने बाहर कर दिया था। गांव के कुछ विद्यार्थीगण अपनी षाला के निर्माण के लिये दान हेतु निवेदन करने आये थे। उन्हें शासकीय योजनाओं का लाभ लेने का सुझाव देकर तुमने विदा कर दिया था। मंदिर में प्रतिदिन जो दान आता है उसे जनहित में खर्च ना करके, यह जानते हुये भी कि यह जनता का धन है तुम अपनी तिजोरी में रख लेते हो। तुमने एक विधवा महिला के अकेलेपन का फायदा उठाकर उसे अपनी इच्छापूर्ति का साधन बनाकर उसका शोषण किया और बदनामी का भय दिखाकर उसे चुप रहने पर मजबूर किया।
तुम्हारे इतने दुष्कर्मों के बाद तुम्हें मुझे उलाहना देने का क्या अधिकार है। तुम्हारे कर्म कभी धर्म प्रधान नही रहे। जीवन में हर व्यक्ति का उसका कर्मफल भोगना ही पड़ता है। इन्ही गलतियों के कारण तुम्हें इसका दंड भोगना ही पडे़गा। पुजारी जी की आँखें अचानक ही खुल गई और स्वप्न में देखे गये दृश्य मानो यथार्थ में उनकी आँखों के सामने घूमने लगे और पश्चाताप के कारण उनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी।