संस्कृति..!!
संस्कृति को राष्ट्र का मस्तिष्क कहा गया है, युगों युगों से मानव ने दीर्घकालीन विचार मन्थन के बाद जिस सभ्यता का निर्माण किया है, वही संस्कृति कहलाती है, संस्कृति मानव जीवन का अभिन्न अंग है, उसके बिना मानव का जीवन उसी प्रकार निष्प्राण है, जैसे शरीर में मस्तिष्क के बिना धड़ निष्प्राण और व्यर्थ रहता है, शरीर मे जैसे मस्तिष्क का महत्वपूर्ण स्थान होता है, उसी प्रकार संस्कृति हमें चिन्तन का अवसर देती है, संस्कृति के बिना मानव की कल्पना नहीं की जा सकती।।
राष्ट्र का स्वरूप निर्धारण करने वाले तत्वों मे से एक तत्व संस्कृति भी है, इसमे ज्ञान और कर्म का समन्वित प्रकाश होता है, भूमि पर बसने वाले मनुष्य ने ज्ञान के क्षेत्र में जो सोचा और कर्म के क्षेत्र में जो रचा है, वही राष्ट्रीय संस्कृति होती है और उसका आधार आपसी सहिष्णुता और समन्वय की भावना है।।
संस्कृति जीवनरूपी वृक्ष का फूल है, जिस प्रकार वृक्ष का सौन्दर्य पुष्प के रूप मे प्रकट होता है, उसी प्रकार जन का चरम उत्कर्ष एवं उसके जीवन का सौन्दर्य संस्कृति के रूप में प्रकट होता है, जैसे पुष्प की सुन्दरता और महक से वृक्ष का सौन्दर्य निखरता है, उसी प्रकार संस्कृति के कारण ही जन का जीवन सुन्दर ,सुगन्धमय और सद्भावनापूर्ण बनता है, जिस राष्ट्र की संस्कृति जितनी श्रेष्ठ होगी ,उस राष्ट्र के जन का जीवन भी उतना ही श्रेष्ठ और उत्तम होगा।।
मनुष्य अपने सतत कर्म करता हुआ सदैव ज्ञान की खोज में लगा रहता है, मनुष्य ज्ञान द्वारा जो सोचता है और कर्म द्वारा जो प्राप्त करता है, वह उसकी संस्कृति में दिखाई पड़ता है,इस प्रकार संस्कृति जीवन के विकास की प्रक्रिया है, हर जाति के जीवन जीने का एक अलग रंग-ढ़ंग होता है, अतः विविध जनों की विविध भावनाओं के अनुसार राष्ट्र में अनेक संस्कृतियाँ फलती-फूलती रहतीं हैं, परन्तु सब संस्कृतियाँ अलग अलग होतीं हुईं भी वास्तव में सहनशीलता और आपसी मेल-जोल की एक मूल भावना पर आधारित होतीं हैं।।
इस प्रकार सभी संस्कृतियाँ एकसूत्र में बँधकर सम्पूर्ण राष्ट्र की सम्मिलित संस्कृति को व्यक्त करती हैं,किसी राष्ट्र के सबल अस्तित्व के लिए इस प्रकार की एकसूत्रता आवश्यक हैं।।
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सरोज वर्मा__