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"एक वक्त ऐसा भी.......part-1"
यह एक पूरी कविता है लेकिन 500 शब्द की लिमिट होने के कारण यह यहां पर पूरी नहीं आ पा रही है, इसीलिए इससे 2 पार्ट में डिवाइड कर दिया गया है कृपया दोनों पार्ट पढ़ें और पढ़ कर बताएं कि आपको यह कविता कैसी लगी है।
जिंदगी के सफर में
एक ऐसा वक्त भी आता है,
जब अपना ही अपनों के
काम नहीं आता है,
जिंदगी के मुकाम में
एक ऐसा दौर भी आता है,
जब भगवान भी हमारी
परीक्षाएं लिए चला जाता हैं,
जिंदगी के रास्तों में
एक मोड़ ऐसा भी आता है,
जिसको हम अपना मानते हैं
वही हमें छोड़ कर चला जाता है,
जिंदगी में कुछ दर्द
ऐसा हो जाता है,
जिसकी वजह से इंसान
घुटता चला जाता है,
जब वक्त अपना ना हो तो
बिना गलती के भी इंसान गलत हो जाता है
गलती ना होते हुए भी इंसान
सबकी नजरों में गलत हो जाता है,
गिरता है वह सबकी नजरों में
लेकिन चाह कर भी उठ नहीं पाता है,
अपने भी हो जाते हैं पराये
और परायो में अपनापन ढूंढा जाता है,
वह ढूंढता है हर जगह अपनापन
लेकिन हर जगह से चोट खाता है,
सोचते हैं हम क्या
और क्या का क्या हो जाता है,
बहुत विश्वास करते हैं हम जिन पर
वही हमारे विश्वास को चकनाचूर कर के चला जाता है, जिसे मानते थे हम अपना
वही हमें धोखा दे जाता है,
आंखों से झलकता है दर्द
और आंसू बनकर बह जाता है,
कितना मजबूर होता है वो इंसान
जो अपने आंसू छुपा कर दुनिया के
सामने हर पल मुस्कुराता है,
ऐसे वक्त में समाज भी अपनी
एक अहम भूमिका निभाता है,
सच- झूठ को जाने बिना ही
उसे कसूरवार ठहराता है,
ऐसे में रिश्तेदार कैसे पीछे रह जाता
वह भी अपना फर्ज बखूबी निभाता है,
इधर उधर की बातें सुनकर वो भी
जले पर खूब नमक-मिर्ची लगाता है,
दिल पर लगे जख्मों का दर्द
इतना गहरा हो जाता है,
कि वो बेचारा उस दर्द की
तन्हाइयों में डूबता चला जाता है,
तूफानों से लड़कर
पार लगाना चाहता है वह अपनी कश्ती,
लेकिन लहरों के भंवर में
फंस कर वही गोते खाता रह जाता है,
वह चीखता है चिल्लाता है
बार - बार समझाता है,
कोई ना उसकी सुनता है
ना कोई पास जाता है,
जिंदगी की कशमकश में
वह फिर अकेला रह जाता है।।3।।