व्यथित मन मेरे !
क्यूँ तड़पे तू बाहर कूद जाने को
मूक है तू कोई शब्द नहीं
क्यूँ अकुलाए गीत बन जाने को
राग क्या है तुझे भान नहीं
आलाप का तुझे ज्ञान नहीं
क्यूँ मचले तू अंतरा बन जाने को
भरे साँस नित,स्वर सजाने को
व्यथित मन मेरे !
क्यूँ तड़पे तू बाहर कूद जाने को ........
लय की भूल भुलइयों में तू गहन खो जाएगा
संगीत के जंगल में भयभीत हो जाएगा
उचित ये ही सूर भीतर ही साध ले
मन अपने भोले को अंतर्मन से बाँध ले
मत बिखर तू यहाँ वहाँ, अनाथ हो जाने को
व्यथित मन मेरे !
क्यूँ तड़पे तू बाहर कूद जाने को .......