औरत : एक बोनसाई --
© मंजु महिमा

जड़े तराश तराश कर बोनसाई तो अब बनाए जाने लगे हैं,
पर औरत तो सदियों पहले ही बोनसाई बना दी गई थी.
वह अपने गृहस्थी के गमले में उग तो सकती है,
पर पुरुष से ऊँची उठ नहीं सकती,
वह फल तो दे तो सकती है, पर
उनकी सुरभि फैला नहीं सकती थी, वह बन कर रह गई
बस घर की सजावट मात्र.
जिसे सुविधानुसार जब चाहे तब
जहाँ चाहे वहाँ बिठा दिया जाता था।
हो चुका बहुत,
पर अब ना बनेगी वह बोनसाई,
उसे उगना है विशाल वृक्ष बनकर,
बनना है नीड़ पक्षियों का,
देने हैं मीठे रसीले फल,
फैलानी है सुगंध उनकी चहुँ दिशाओं में,
देनी है घनी छांव, तप्त धरा को।
उसे उठना है ऊपर,
करनी हैं बातें आसमां से उसे भी ,
नहीं बनकर रहना है बोनसाई उसे अब।
नहीं बनकर रहना है बोनसाई उसे अब ।
©मंजु महिमा भटनागर

Hindi Poem by Manju Mahima : 111442230
Manju Mahima 4 years ago

धन्यवाद दिव्या..

Manju Mahima 4 years ago

धन्यवाद🙏💕

shekhar kharadi Idriya 4 years ago

अत्यंत सुंदर सृजन...

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