मैं स्रष्टा, मैं पालनकर्ता, मैं संहारक कहलाता हूँ।

है मेरा तो प्रिय खेल यही, कभी गिराता, कभी उठाता हूँ।

मैं बिगाड़ता, मैं ही बनाता, मैं "होनी", मैं विधाता हूँ।

मैं राग-द्वेष से हूँ परे, छल-दंभ न मुझको आता है।

लिखता हूँ सबके भाग्य स्वयं,सुख और दुख देता जाता हूँ।

मिलता है यश में साधुवाद, अपयश में कोसा जाता हूँ।

पूजा जाता हूँ लाभ में मैं, हानि में निठुर हो जाता हूँ।

हैं मेरी ही सब संतानें, क्यूं मनुष्य ये न समझता है।

निज कर्मों का फल पाते हैं, जो सबको भोगना पड़ता है।

पाता हूँ उनके आनंद में शांति, दुख में अश्रु बहाता हूँ।

अपनी संतान को कष्ट देना, पिता को कहाँ आता है।

आह! मैं ईश्वर हूँ...

#द्वेष

Hindi Poem by Priyan Sri : 111427671

The best sellers write on Matrubharti, do you?

Start Writing Now