न्याय का प्रतिकार।
बहुत हुआ यह आंदोलन,
और बहुत हुआ यह "अतिथि देवो भवः" का संस्कार,
इस देश की औरतो को बस चाहिए "न्याय" का प्रतिकार।
नहीं चाहिए हमें यह वाद-विवाद के कानून,
और नहीं चाहिए यह अस्त्र-शस्त्र के सौदो का प्रचार,
इस देश की औरतो को बस चाहिए "न्याय" का प्रतिकार।
गांव हो या हो शहर की रौनक,
घूम फिर सके पूरी स्वतंत्रता से और ना हो कोई वक़्त की सीमाएं,
इस देश की औरतो को बस चाहिए "न्याय" का प्रतिकार।
करते हम न्याय की बातें, और लगाते "मेरा देश महान" का हुंकार,
पर कहां है न्याय? और कहां है उनके अधिकार?
क्या मिल पाता है सभी औरतों को अपने हक का पूरा सम्मान?
इस देश की औरतो को बस चाहिए "न्याय" का प्रतिकार।
नहीं चाहिए अब कोर्ट कचेरियो की तारीखें,
ना ही चाहिए कोई जूठे आश्वासन का करार,
बस चाहिए एक मजबूत कानून,
जो निडरता से दे सके "साइबराबाद" जैसा उपहार,
इस देश की औरतो को बस चाहिए "न्याय" का प्रतिकार।
-ध्रुव हरीश रुड़ानी
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