लिखता हु,
हां, मैं डायरी लिखता हु,

मुझे जगाने को मंदिर मे पूजा करते करते दी गई मां की आवाज़े लिखता हु,
खिडकी पे आके फरफराते, गुनगुनाते कबूतरो कि मुझे जगाने की नाकाम कोशिशे लिखता हु,
हररोज प्रकृति से हुइ बातो के शब्द लिखता हु,
सवेरे-सवेरे इश्वर से कि गई प्राथनाएं लिखता हु,
घर से निकलते समय मां के पैर छुकर पाए हुए आशीर्वाद लिखता हु,

लिखता हु,
हां, मैं डायरी लिखता हु,

लोगों से की गई गुफ्तगूं से बोल लिखता हु,
पहेचान वाला हो कोइ तो पूछके उनसें खबर-अंतर लिखता हु,
न मिले अगर जाना-पहचाना कोइ, "सब जानते हे मुझे" का चूर हुआ भ्रम लिखता हु,
दोस्त मिल जाए तो साथ मिल उसके, जंजोडी गई यादो का कांरवा लिखता हु,

लिखता हु,
हां, मैं डायरी लिखता हु,

दिन पूरा की हुई महेनत और थकान लिखता हु,
सहकर्मीओ से किए गए मस्ती-मजाक, व्यंग, और निरर्थक चर्चाए लिखता हु,
टिफन मे भरे मां के हाथो के खाने का स्वाद लिखता हु,
बेरहम मालिको के नीचे अन्याय से कुचले गए मजदूरों की फरियादे लिखता हु,
कुछ न कर पाने की खुद की मजबूरियां लिखता हु,
कुछ कर जाने का खुद को दिया दिलासा लिखता हु,

लिखता हु,
हां, मैं डायरी लिखता हु,

वापिस आते समय फिरसे आनेवाले उजाले की धमकी देकर डराये हुए अंधकार को लिखता हु,
फिरसे घर की और ले जा रहे रास्ते कि दिशाए लिखता हु,

लिखता हु,
हां, मैं डायरी लिखता हु,

छतवाले घरमे होने की वजह से,
रात को चांद-तारे कम देखने का अफसोस लिखता हु,
फिर सोता हु,
सपनो मे "उनके" आने का इंतज़ार लिखता हु,

लिखता हु,
हां, मैं डायरी लिखता हु,

सूरज जलने से लेकर चांद की ठंडी चांदनी तक जिए गए लम्हों को लिखता हु,
पढने को ये डायरी मेरी,
मेरे अंदर जांखना होगा,
कयुंकि मैं मन के कागज पे संवेदना की श्याही से लिखता हु,

लिखता हु,
हां, मैं डायरी लिखता हु।
- प्रतिक "शून्यमनष्क"

Hindi Thought by Pratik Barot : 111355675

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