"उम्र की सांझ का बीहड़ अकेलापन "
जाने क्यूँ ,सबके बीच भी अकेला सा लगता है.
रही हैं घूर,सभी नज़रें मुझे
ऐसा अंदेशा बना रहता है.
यदि वे सचमुच घूरतीं.
तो संतोष होता
अपने अस्तित्व का बोध होता.
ठोकर खा, एक क्षण देखते तो सही
यदि मैं एक टुकड़ा ,पत्थर भी होता.
लोगों की हलचल के बीच भी,
रहता हूँ,वीराने में
दहशत सी होती है,
अकेले में भी,मुस्कुराने में
देख भी ले कोई शख्स ,तो चौंकेगा पल भर
फिर मशगूल हो जायेगा,निरपेक्ष होकर
यह निर्लिप्तता सही नहीं जायेगी.
भीतर ही भीतर टीसेगी,तिलामिलाएगी
काश ,होता मैं सिर्फ एक तिनका
चुभकर ,कभी खींचता तो ध्यान,इनका
या रह जाता, रास्ते का धूल ,बनकर
करा तो पाता,अपना भान,कभी आँखों में पड़कर
ये सब कुछ नहीं,एक इंसान हूँ,मैं
सबका होना है हश्र,यही,
सोच ,बस परेशान हूँ,मैं.