#काव्योत्सव -2

आंख मिचौली 

"जिस दिन फूलों पर बिखरी थी, मधु की पहली बूंदे
 जिस दिन से अंबुज की, प्यासी आंखें रवि को ढूंढें 

जिस पल नील-घूंघट में चेहरा देखा, विधु ने रजनी का
जिस पल दीपक की लौ में जलकर, प्रेममय हुआ पतंगा

जिस क्षण किरणों के रंग से ,रंग उठे थे तारे 
जिस क्षण पुष्प के मीठे रस से ,भीगे मधुकर सारे

 उन्हीं पलों में भीग उठा,मेरा चंचल सा जीवन
उन्हीं क्षणों में फूट पड़ा,स्वर के बंधन से रोदन 

तब से मैंने अंबुज बनकर, ढूंढा अपने रवि को
 तब से मैंने इस नदिया बनकर ,ढूंढा सागर की छवि को 

कितने बीत गए पतझर, कितने बसंत दिन आए
 पर मेरी व्यापक पीड़ा का, कोई छोर न पाए

 अब तो इन जर्जर तारों में, उलझ गया है मानस
 प्रतिपल घुमड़ रहा नेत्रों में, टूटे सपनों का पावस 

आज भी अनछिड़े हैं कोमल हृदय के तार,
 गूंजती है बस यहां एकांत की झंकार 

अब थके हैं प्राण, होकर वेदना में मौन 
जो अगर आए कभी वे,तो पूछना तुम कौन 

अब नहीं होने देना, मेरे मन कोई अनहोनी
 दूर हटो मेरे निर्मोही ,नहीं खेलनी आंख मिचौली"

-कविता जयन्त

Hindi Poem by kavita jayant Srivastava : 111170866

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