बहुत याद आता है नीम का वो पेड़
बड़े दिनों बाद आई बिटिया
हवा में घुली,मिटटी की सोंधी महक ने जैसे की हो शिकायत
पाय लागू काकी, राम राम काका, कईसी हो रामसखी
पूछते चल पड़े विकल कदम,
मिलने को उस बिछड़े साथी से,
दिया था जिसने साथ,हरपल हरदम
शाम होते ही उसकी शाखाओं पर गूंजता,
पंछियों का कलरव
जड़ों के पास लगा होता,
बच्चों का जमघट
रात होती और जमा होती बहुएं,
घर घर से
जो दिन के उजाले में होती किवाड़ों के पीछे,
बड़े बूढों के डर से.
हंसी ठिठोली होती
बांटे जाते राज
पोंछे जाते आंसू
और समझाई जाती बात
मनाया था,इस नीम के पेड़ ने ,उन रूठे बेटों को
जो,घर से झगड़ ,आ बैठते थे,इसकी छाँव
दिया था दिलासा,उस रोती दुल्हन को
जब रखी थी उसकी डोली कहारों ने
और सुस्ताने बैठे थे पल भर ,इस ठांव.
सहलाया था, पत्तियों ने दुलार से
,उन फफोलों को
जब निकलती थी माता
मासूम नौनिहालों को.
पहनी रहती ,बच्चियां
नीम के खरिकों के टुकड़े
नाक-कान छिदवाने के बाद.
ताकि,पहन सकें झुमके और नथ
जब लें फेरें, अपने साजन के साथ.
सुबह होती,बांटता सबको दातुन
गाँव की चमकती हंसी रहें,सलामत
जैसे हो,इसका प्रण.
सर पे चढ़ती धूप और
चले आते किसान
लिए नमक-रोटी-प्याज की पोटली
अपनी पत्तियों का बेना डुला
हर लेता उनकी थकान
आता दशहरा और खेली जाती रामलीला
सजती चौपाल भी और किए जाते फैसले
चुप खड़ा देखता नीम, इस जग की लीला
देखता,बदलती दुनिया और जग के झमेले
तेज होती जा रही थी चाल,याद करते एक-एक पल.
अब मिलने को मन हो रहा था ,बहुत ही विकल
पर झूमता,इठलाता,खुद पर इतराता
कहाँ था वह नीम का पेड़??
खड़ा था,वहाँ एक लिपा-पुता बेजान भवन
दंभ,अभिमान,अपने गुरूर में मदमस्त
सूरज भी भभक कर दिखा रहा था ,अपनी नाराज़गी
पर नहीं थी, सर छुपाने को
शीतल छाँव नीम की,ना ही वो नीम बयार
,गाँव तो अनाथ हो गया हो जैसे.