#काव्योत्सव2 #kavyotsav2 #poetry
समेट दूँ
यहाँ वहाँ
बिखरा पड़ा है सब
चंद पुरानी किताबें ,
पांव झटकाकर बेदर्दी से फेंके गए जूते,
नज़रो से ओझल करने को
पलंग के नीचे खिसकाई गयीं कुछ प्लेटें ,
बास जिनकी मगर नहीं भूलने देती
एहसास उनके वहां होने का ।
कुछ नम कपड़े भी हैं टँगे हुए
जहां तहां , कुछ ढके छुपे से ,
जो बढ़ा रहे हैं सीलन को
हर ढलते पल के साथ ,
शायद धूप की ज़रुरत इन्हें भी है।
मुहाने पर एक ओर लिपस्टिक के निशान वाला
चाय का कप
जो सूख चुका है ,
एक बार फ़िर से उठाए जाने के इंतज़ार में ।
अब तो दीवाल के कोने में लगे
जाले में फंसी मकड़ी ने भी
फड़फड़ाना छोड़ दिया है।
सोचती हूं ,
कोशिश कर
अब समेट ही दूं
इस ज़िन्दगी को भी........
#अंजलि सिफ़र