#kavyotsav -2
निर्झर
झर झर कंपमान है निर्झर तू,
द्रुतगामी मेघ से भी द्रुततर,
न कोई स्थान, काल, चराचर
न मानती कोई विघ्न, विलाप हलाहल।
ना पर्वत या कोई धरोहर
पुनः पुनः टकराती हुई पाषाण से,
असीम चुंबी प्रांत से निकल कर
न मानी कभी व्यथा, चिंतन, विराग
ऋषि, मुनि और गुणियों समान।
सकल चराचर की अमृत धरा है तू,
मराल मृदु दोर्लित मंदगामी तू कहीं,
शीतल जल प्रवाह कटितट को जब टकराए
बूँद बूँद जल राशि बिखरते
विचलित मन की प्यास बुझाए।
नारिंगना जैसी सर्पिल चाल, लचकाए, बलखाए-
नाट्य प्रावीण्य से भरपूर तब अंग
वन मध्ये नाचे हिरन जैसे
निर्झर झरती अविराम तू वैसे।
उग्र शिवजी के मस्तक से तू निकली
कभी प्रखर कभी सौजन्य भी
कभी प्रलय रौद्र और प्रचंड भी
कहीं शांत निम्नगा और प्रसन्न भी।
क्रोधित नागिन जैसी तू उछल कर
लांघती हुई सारी दीवार
तांडव करती उग्र शिव की तरह-
नित्य निठुर और निर्मम तू
निमेष मात्र, निकृंतन कर देती नगर नार।
कैसे वर्णन करे तेरी काया ?
तेरा अस्तित्व ही है जग का साया।
मौलिक, लता तेजेश्वर रेणुका