#काव्योत्सव #भावनाप्रधान
ज़माना
गुज़र गए हैं वो ज़माने...
गमों कि बस्तियों में रहते हैं हम अब,
ज़माने कि निगाहों में पड़ते हैं कम अब।
तराने मौत के दिखते हैं हर दूजे कदम पे,
दुनिया थी किसी ज़माने में हमारी भी जन्नत।
क्यु फासले आते हैं इक कमसिन जिगर में,
क्यु लौटता है वो फिर उस गम के भवर में।
हमें ये क्यों समझना है कि ये संसार क्या है,
बादलों से निकलते पानी कि बौछार क्या है।
तिमिर में कर के रौशनी कोई पाता खुशी है,
कोई धड़कन को गिनकर ज़िन्दगी बिता रहा है।
- सुमति जोशी