#काव्योत्सव -2
आईना
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आईना हूँ मैं,
रोज सैकड़ों चेहरे आ खड़े हो जाते हैं
मेरे सामने कई सवाल लिए,
कुछ चेहरों में उदासी छाई होती है
कुछ चेहरों पर खुशी तो कुछ गम के साये
कोई पलकें ठपठपाते हैं
तो कोई गुर्राते नज़र आते हैं।
कोई असहनीय वेदना से सिहर उठता है
कोई गिरगिट की तरह रंग बदलता है
कोई मुस्कुराता है तो कोई प्यार से मुझे निहारता है
कोई चेहरे पे चेहरा लगाकर अपना असलियत छुपाता है
तो कोई संदिग्ध नजरों से देखता है
एक नन्ही-सी बच्ची कभी
आ खड़ी हो जाती है मेरे सामने
मासूमियत का आईना चेहरे पर लिए
जिन आँखों में छल-कपट अभी कोसों दूर है
सोचती हूँ क्या नसीब है मेरा
चेहरे तो बहुत दिखते हैं मगर इनमें से
कौन-सा चेहरा खुदमें उतारूं
या शून्य रह जाऊँ यूँ ही
लाखों में भी अकेले जब तक कि
टूट कर बिखर न जाऊँ मेरे नसीब की तरह।