कविता

अँधेरे में पुरुष
अर्पण कुमार

दिन भर के तामझाम के बाद
गहराती शाम में
निकल बाहर
नीचे की भीड़ से
चला आता हूँ
खुली छत पर
थोड़ी हवा
थोड़ा आकाश
और थोड़ा एकांत
पाने के लिए
निढाल मन
एक भारी-भरकम वज़ूद को
भारहीन कर
खो जाता है
जाने किस शून्य में
अंतरिक्ष के
कि वायु के उस स्पंदित गोले में
साफ़ साफ़ महसूस की जाने वाली
कोई ठोस
रासायनिक प्रतिक्रिया होती है
और अलस आँखों की कोरों से
बहने लगती है एक नदी
ख़ामोशी से
डूबती-उतराती
करुणा में
देर तलक

भला हो अँधेरे का
कि बचा लेता है
एक पुरुष के स्याह रुदन को
प्रकट उपहास से
समाज के

दुःखी पुरुष को
अँधेरे की ओट
मिल जाती है
नदी
सरकती हुई
उसके पास आती है
और उसे
अपने पार्श्व में ले लेती है

देर तक
एक दूजे के
मन को टटोलते हुए
दोनों
दूसरे के दुःखों को
कब सहलाने लगे,
इसका पता
उन्हें भी नहीं चला

उस रात्रि
करुणा का उजाला था
और मेरे पुरुष के भीतर
कोई स्त्री अँखुआयी थी।
.....
#KAVYOTSAV -2

Hindi Poem by Arpan Kumar : 111156420
Vivek Kumar 5 years ago

लाजवाब... ?????...

Sudhir kumar 5 years ago

Atisunder....."Andhere me purus"

Arpan Kumar 5 years ago

शुक्रिया करण और उमाशंकर।

Karan Yadav 5 years ago

बेहतरीन

Umashankar 5 years ago

अतिसुन्दर

Arpan Kumar 5 years ago

जी, शुक्रिया।

Neelima Sharma 5 years ago

बेहतरीन

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