एक सुंदर कविता*

_ख्वाहिश नहीं मुझे_
_मशहूर होने की,

_आप मुझे पहचानते हो_
_बस इतना ही काफी है._

_अच्छे ने अच्छा और_
_बुरे ने बुरा जाना मुझे,_

_क्यों की जिसकी जितनी जरूरत थी_
_उसने उतना ही पहचाना मुझे._

_जिन्दगी का फलसफा भी_
_कितना अजीब है,_

_शामें कटती नहीं और_
_साल गुजरते चले जा रहें है._

_एक अजीब सी_
_दौड है ये जिन्दगी,_

_जीत जाओ तो कई_
_अपने पीछे छूट जाते हैं और_

_हार जाओ तो_
_अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं._

_बैठ जाता हूँ_
_मिट्टी पे अकसर,_

_क्योंकि मुझे अपनी_
_औकात अच्छी लगती है._

_मैंने समंदर से_
_सीखा है जीने का सलीका,_

_चुपचाप से बहना और_
_अपनी मौज मे रेहना._

_ऐसा नहीं की मुझमें_
_कोई ऐब नहीं है,_

_पर सच कहता हूँ_
_मुझमें कोई फरेब नहीं है._

_जल जाते है मेरे अंदाज से_
_मेरे दुश्मन,_

_क्यों की एक मुद्दत से मैंने,
.... न मोहब्बत बदली
और न दोस्त बदले हैं._

_एक घडी खरीदकर_
_हाथ मे क्या बांध ली_

_वक्त पीछे ही_
_पड गया मेरे._

_सोचा था घर बना कर_
_बैठुंगा सुकून से,_

_पर घर की जरूरतों ने_
_मुसाफिर बना डाला मुझे._

_सुकून की बात मत कर_
_ऐ गालिब,_

_बचपन वाला इतवार_
_अब नहीं आता._

_जीवन की भाग दौड मे_
_क्यूँ वक्त के साथ रंगत खो जाती है ?_

_हँसती-खेलती जिन्दगी भी_
_आम हो जाती है._

_एक सवेरा था_
_जब हँसकर उठते थे हम,_

_और आज कई बार बिना मुस्कुराये_
_ही शाम हो जाती है._

_कितने दूर निकल गए_
_रिश्तों को निभाते निभाते,_

_खुद को खो दिया हम ने_
_अपनों को पाते पाते._

_लोग केहते है_
_हम मुस्कुराते बहुत है,_

_और हम थक गए_
_दर्द छुपाते छुपाते._

_खुश हूँ और सबको_
_खुश रखता हूँ,_

_लापरवाह हूँ फिर भी_
_सब की परवाह करता हूँ._

_मालूम है_
_कोई मोल नहीं है मेरा फिर भी_

_कुछ अनमोल लोगों से_
_रिश्ता रखता हूँ

Marathi Story by Suresh Bhalerao : 111128905

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