खुद को वो यूँ इस कदर ढूँढतें है।
जैसे कोई खास नज़र ढूँढतें है।

बेचेनी छलक रही है इतनी देखेते,
पल पल के लिए वो सबर ढूँढतें है।

तलाश करते गाँव की शहर में रहते
और गाँव में आकर शहर ढूँढतें है।

भीड़ मैं खों जाना फितरत बन सी गई,
अपने आप को ही अक्सर ढूँढतें है।

चले जा रहे इस सोच में मिल जाये
जिन्दगी की वो सही डगर ढूँढतें है।

है तू बंजारा समजले सही होगा दोस्त
चार दिनों के लिए क्यू बसर ढूँढतें है।


- श्रेयस त्रिवेदी


#hoshnama

Gujarati Shayri by Shreyas Trivedi : 111059302

The best sellers write on Matrubharti, do you?

Start Writing Now