कब चाहा ...
चाह नही भाग्य से ऐसा लेख ,
वसुदेव सा हो मेरा वंश नेक
वासुदेव तुम हो,मेरे अंश एक'
और आह्लादित होऊं ,तुम्हे देख।
बस तकती हूँ राह तुम्हारी ,
बंदीगृह सी आस लिए '
खुल जाएंगे बंधन तब,
आओगे जब तुम पास प्रिय ।

नंदबाबा सा हो आँगन मेरा ,
और तुम उसमे पलने आओ,
कब चाहा मैंने ,शिशु लीला
से अपनी मन को मेरे छल के जाओ ।
बस तकती हूँ राह तुम्हारी ,
वन मयूर सी आस लिए ,
आओगे तुम गईया के संग ,
होता है ऐसा आभास प्रिय ।

कब चाहा यशोदा बन
लोरी मैं भी गए पाती,
मेरे आँचल की छाँव तुम्हें
सबसे ज्यादा भा जाती |
बस तकती हूँ राह तुम्हारी
कदम्ब सा मैं विश्वास लिए
बैठ मेरी इक डाल पर
लोगे तुम कुछ श्वास प्रिय |

कब चाहा मैंने कान्हा ,
बलदाऊ सी मैं बड़ी हो जाऊं ,
जाओ तुम जिस ओर भी
रक्षा में तुम्हारी खडी होजाऊं |
मर मर कर जीती हूँ
जैसे कोई कंस जिए,
उड़ जाउंगी देख तुम्हे
एक दिन बन हंस प्रिय |

रुक्मिणी सा हो भाग्य मेरा
और उसपर मैं इतराऊं;

बस तकती हूँ राह तुम्हारी
सुदामा सी मैं आस लिए ,
कभी कराओगे मुझको भोजन
बिठा अपने पास प्रिय |

Hindi Shayri by Amita Joshi : 111034896
Deepa Chauhan 5 years ago

Sunder kavita.....behtareen abhivyakti.Prabhu ki preet anoothi

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