#Kavyotsav - "जनक (पिता)

शीश नत मैं विनत सेवक, हे जनक स्वीकार हो,
नमन बारंबार मेरा, नमन बारंबार हो|
आप थे सारा जहां था, मुट्ठियों में दास की,
आपके बिन यूं लगे, ज्यों जिंदगी धिक्कार हो|
है जमी ज़र, शान भी है, मान भी बेहिस मिला,
पर पिता के वक्ष सा, क्या दूसरा आधार हो?
थाम कर जिस तर्जनी को, हम चले पहला कदम,
आज भी सबलम्ब बनती, राह जब दुश्वार हो|
आर्त वाणी राम की सुन, ज्यों प्रकट दशरथ हुये,
पार्श्व में पाता सदा, हालात से दो-चार हो|
भूल मैं पाता नहीं, व्याकुल नयन करुणा भरे,
जो विदाई के समय, झर-झर बहे लाचार हो|
बन पिता मैं जान पाया, अब पिता की पीर को,
हो बिलग संतान से, लगता लुटा संसार हो|
मैं अभागा पेट की खातिर, वतन से दूर था,
दे न पाया आग भी, जिसने दिया आगार हो|
राज रानी सी ठसक, माँ की नदारद हो गई,
हो न कैसे भाल से, जिसका पुछा शृंगार हो?
चाह है संतति में देखूँ, अक्स हर पल आपका,
इस बहाने ही सही, संताप का उपचार हो|
हे परम गोलोक वासी, आपको सद्गति मिले,
मोक्ष की है कामना, बस आपका उद्धार हो|

कवि- छत्र पाल वर्मा
35-शिवम बंग्लो,
आइ पी स्कूल के पास
वल्लभ पार्क, साबरमती,अहमदाबाद
382424,

Hindi Shayri by CHHATRA PAL VERMA : 111031584

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